भारत देश में सब त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाए जाते है। ऐसे ही इस वर्ष रक्षाबंधन का त्यौहार 15 अगस्त को मनाया जायेगा। इस दिन का इंतज़ार भाई बहन दोनों को बड़ी बेसब्री के साथ रहता है। इस दिन भाई अपनी को वचन देता है कि वह सारी उम्र उसकी रक्षा करेगा और बहन भाई की कलाई पर राखी बांधती है और भाई अपनी बहन को उपहार या कुछ पैसे देता है। रक्षा बंधन वाले दिन सब से पहले लोग नहाते है। नहाने के बाद लोग अपने अपने भगवान की पूजा करते है। इस दिन लोग अपने घरों में तरह तरह के पकवान बनाते है और नए नए कपड़े पहनते है। शादीशुदा लड़कियाँ अपने भाइयों को राखी बाँधने अपने मायके कुछ ना कुछ मीठा ज़रूर ले कर जाती है।
पौराणिक कथा के अनुसार द्रोपदी ने श्री कृष्ण को राखी बाँधी थी। जब सारी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हुआ था तो श्री कृष्ण ने द्रोपदी की रक्षा की थी। ऐतिहासिक नज़र से सिकंदर की पत्नी ने राजा पुरु को राखी बांध कर सिकंदर को जीवन दान देने का वचन लिया था। ऐसे न जाने कितने किस्से है जो रक्षाबंधन के प्रतीक माने जाते है।
उत्तराखण्ड में देव भूमि नामक जगह पर माँ वाराही धाम देवी धुरा का मंदिर है। इस मंदिर में धरती माता की वाराही स्वरूप में पूजा अर्चना की जाती है। इस मंदिर में रक्षा बंधन वाले दिन पत्थरों का युद्ध होता है। आप को जानकर शायद अजीब लगा होगा लेकिन यह सत्य है। आइए हम आप को बताते है क्यों रक्षा बंधन वाले दिन इस मंदिर में युद्ध होता है?
पौराणिक कथाओं के अनुसार हिरणाकश्यप नाम का राजा पृथ्वी को उठाकर पाताल लोक ले कर जा रहा था। उस समय पृथ्वी ने भगवान् विष्णु के आगे अर्चना की कि मुझे हिरणाकश्यप से बचा ले। पृथ्वी की अर्चना सुनकर भगवान विष्णु ने विशाल वराह का रूप धारण किया और विष्णु जी ने पृथ्वी को अपने बाम अंग में छुपा लिया। ऐसे करके भगवान विष्णु ने हिरणाकश्यप से पृथ्वी को डूबने से बचाया था। तब से इस जगह की मान्यता माँ वाराही के रूप में बनी हुई है। लोग यहाँ अपनी अपनी अधूरी मनोकामना को ले कर आते है और माँ वाराही उनकी मनोकामना को पूरी कर के वापिस भेजती है। यहाँ पर एक गुफा बनी हुई है जिसमें भक्त प्रवेश करके माँ वाराही की पूजा करते है।
इस मंदिर वाली जगह पर रक्षाबंधन वाले दिन दो गुटों में पत्थरों से युद्ध किया जाता है। इस युद्ध को बग्वाल के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है। देवीधुरा के खोलीखांड़ दुबाचौड़ में वालिक लमगडिय़ा चम्याल और गहड़वाल खामों यानी दलों के लोग दो भागों में बंटकर यह पत्थर युद्ध खेलते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार देवासुर संग्राम में मुचकुंद राजा की सेना ने भी भाग लिया था जिसने असुरों की सेना को मां वाराही की अपार कृपा से पराजित किया था उसके बाद देवताओं की सेना ने प्रसन्न होकर प्रतीक स्वरूप बग्वाल खेली और ई-ह-हा-हा-इ-ही के खेल को शुरू किया था।
जब भी भक्त इस स्थान पर पूजा करने जाता है तो उसे अलौकिक अनुभूति प्राप्त करते है। यह स्थान बहुत ही सुन्दर है। इसके चारों तरफ हरे भरे पहाड़ है जो इस मंदिर की सुंदरता को निखारने का काम करते है। ताज़ी हवा, प्रदूषण रहित, ना गाड़ियों का शोर यहाँ सुनने को मिलता है। जो भी यहाँ आता है बस यही का हो कर रह जाता है।
Neha Jain is a festival writer with 7+ years’ experience explaining Indian rituals, traditions, and their cultural meaning, making complex customs accessible and engaging for today’s modern readers.