July 16, 2025 Blog

Shiv Mahimna Stotra: सावन माह में शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से शिव की होती है विशेष कृपा

BY : STARZSPEAK

Shiv Mahimna Stotra: शिवभक्त गंधर्वराज पुष्पदंत द्वारा रचा गया शिवमहिम्न स्तोत्र भगवान शिव की अपार महिमा का भावपूर्ण वर्णन करता है। यह स्तोत्र अत्यंत सुंदर और हृदयस्पर्शी है, जिसमें शिव के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम झलकता है। ऐसा माना जाता है कि शिव को यह स्तुति अत्यंत प्रिय है, और जो भक्त इसे श्रद्धा से पढ़ते या गाते हैं, उन्हें विशेष कृपा प्राप्त होती है।

यहां हम शिवमहिम्न स्तोत्र (Shiv Mahimna Stotra) का सरल अर्थ सहित रूप प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि हर कोई इसकी गहराई को समझ सके। साथ ही, इसके पाठ से मिलने वाले आध्यात्मिक लाभ और महत्व की जानकारी भी साझा की जा रही है।

शिवमहिम्न स्तोत्र के लाभ (Benefits Of Shiv Mahimna Stotra)

  • इस स्तोत्र का नियमित पाठ भय और मानसिक अशांति को दूर करने में सहायक होता है।

  • इसके जाप से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है, जिससे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

  • यह स्तोत्र आत्मा के शुद्धिकरण में मदद करता है और व्यक्ति के सभी पापों का क्षय करता है।

!! अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम् !!

!! Shiv Mahimna Stotra Lyrics !!



पुष्पदंत उवाच

महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी।

स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः॥

अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिमाणावधि गृणन्।

ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥1॥

अर्थ: श्री पुष्पदंत जी विनम्र भाव से कहते हैं – हे प्रभु! जब बड़े-बड़े ज्ञानी और योगी भी आपकी महिमा को पूरी तरह नहीं समझ पाए, तो फिर मैं तो एक सामान्य बालक हूं, मेरी तो कोई तुलना ही नहीं। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि जब तक आपकी महिमा को पूरी तरह न जाना जाए, तब तक आपकी स्तुति नहीं की जा सकती? मैं ऐसा नहीं मानता। अगर ऐसा होता, तो स्वयं ब्रह्मा जी की स्तुति भी अर्थहीन हो जाती।

मैं तो यह मानता हूं कि हर किसी को अपनी समझ और श्रद्धा के अनुसार आपको याद करने और स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप मेरी भक्ति और भावना को देखें, और कृपा कर मेरी विनम्र प्रार्थना को स्वीकार करें। 


अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो:।
रतदव्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधिगुणः कस्य विषयः।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥2॥

अर्थ: हे शिव! आपकी महानता को न तो मन पूरी तरह समझ सकता है और न ही कोई वाणी उसे पूरी तरह व्यक्त कर सकती है। वेद भी आपकी महिमा को समझने में असमर्थ होकर बस यही कहते हैं – 'नेति नेति', यानी 'यह भी नहीं, वह भी नहीं'। आपकी महिमा और स्वरूप को पूरी तरह जान पाना संभव नहीं है।

फिर भी, जब आप साकार रूप में भक्तों के सामने प्रकट होते हैं, तो वे आपके दिव्य रूप का गुणगान करते नहीं थकते। यह उनके हृदय में बसे प्रेम और श्रद्धा का ही प्रतीक है, जो उन्हें आपके प्रति निरंतर स्तुति करने को प्रेरित करता है। (Shiv Mahimna Stotra in Hindi)


मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत:।

स्तवब्रह्मन्किवागपि सुरगुरोविस्मय पदम्।।

मम त्वेतां वाणों गुणकथनपुण्येन भवतः।

पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥3॥

अर्थ: हे वाणी और वेदों के आदि स्रोत! आपने स्वयं अमृतमय वेदों की रचना की है, इसलिए जब देवताओं के गुरु बृहस्पति जैसे महाज्ञानी आपकी स्तुति करते हैं, तो वह आपके लिए कोई नई या आश्चर्यजनक बात नहीं होती। उसी भाव से मैं भी, अपनी सीमित बुद्धि और सामर्थ्य के अनुसार, आपके गुणों का वर्णन करने का प्रयास कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि मेरी स्तुति आपको चकित भले न करे, लेकिन मेरी वाणी निश्चित रूप से इससे शुद्ध और पुण्यफलदायी हो जाएगी।

Shiv Mahimna stotra

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तवैश्वर्यं तत्तज्जगदुदयरक्षा प्रलयकृत्।

त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासुतनुषु ॥

अभव्यानामस्मिन्वरद रमणीयामरमणीम्।

विहन्तु व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥4॥

अर्थ: हे प्रभु! आप ही इस सम्पूर्ण सृष्टि के सृजनकर्ता, पालक और संहारक हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश—तीनों ही स्वरूप आप में समाहित हैं। आपके भीतर सत्व, रज और तम—ये तीनों गुण विद्यमान हैं, जिनका वर्णन स्वयं वेदों ने किया है। फिर भी कुछ अज्ञानी जन आपके बारे में निराधार और भ्रमित करने वाली बातें करते रहते हैं। भले ही इससे उन्हें क्षणिक संतोष मिल जाए, लेकिन सत्य और वास्तविकता से वे मुंह नहीं मोड़ सकते।

किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम्।

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च॥

अतक्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः।

कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः॥5॥

अर्थ:  हे महादेव! कुछ अज्ञानी लोग निरंतर इस बात पर तर्क करते रहते हैं कि यह सृष्टि कैसे बनी, किसकी इच्छा से बनी, और किन-किन तत्वों से इसका निर्माण हुआ। ऐसे तर्क केवल लोगों के मन में भ्रम फैलाने का ही कार्य करते हैं। वास्तव में, इन सभी रहस्यों का आधार आपकी असीम और दिव्य शक्ति है — जिसे मेरी सीमित बुद्धि से समझना या व्यक्त करना संभव नहीं है।

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।

मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति॥

अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो।

यतोमन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥6॥

अर्थ: हे परमपिता परमेश्वर! ये सम्पूर्ण सातों लोक आपकी ही रचना हैं। इस सृष्टि के सच्चे सर्जक आप ही हैं, क्योंकि इतनी अद्भुत और रहस्यमयी सृष्टि को रचने की शक्ति और साधन किसी अन्य के पास संभव ही नहीं है। जो लोग आपकी दिव्यता और सत्ता पर शंका करते हैं, वे केवल अज्ञान के कारण ऐसा करते हैं, क्योंकि सत्य को समझने की दृष्टि उनके भीतर नहीं होती। 


त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।

प्रभिन्न प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च॥

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां।

नृमाणेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥7॥

अर्थ: हे शिव! आपकी प्राप्ति के लिए अनेक मार्ग उपलब्ध हैं — कोई सांख्य योग को अपनाता है, कोई वैष्णव या शैव मार्ग को, तो कोई वेदों के ज्ञान के सहारे चलता है। लोग अपनी प्रकृति और आस्था के अनुसार किसी एक मार्ग को चुनते हैं। लेकिन जैसे अलग-अलग दिशाओं से बहती नदियाँ अंत में समुद्र में मिल जाती हैं, वैसे ही ये सभी साधनाएं अंततः आपको ही प्राप्त करती हैं। वास्तव में, जो भी मार्ग सच्चे हृदय से अपनाया जाए, वह अंत में आपको ही पहुँचा देता है। (Shiv Mahimna Stotra pdf)

महोक्षः खट्वांग म्परशुरजिनं भस्म फणिनः।

कपालंचेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्॥

सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भ्द्ध प्रणिहिताम्।

न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति।। 8।।

अर्थ: हे शिव! आपकी केवल एक भृकुटी के संकेत से समस्त देवता वैभव, ऐश्वर्य और सुख-संपत्ति का उपभोग करते हैं। लेकिन आप स्वयं इन सांसारिक सुखों से दूर, केवल एक कुल्हाड़ी, नंदी बैल, व्याघ्रचर्म, भस्म से विभूषित शरीर और हाथ में खोपड़ी धारण करते हैं। इससे यही स्पष्ट होता है कि जो आत्मानंद में स्थित होता है, वह भौतिक सुख-सुविधाओं में नहीं उलझता।

ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्ध वमिदम्।

परोधौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये॥

समस्तेऽप्येतस्मिन्पुरमथन तैविस्मित इव।

स्तुवज्ञ्जिद्देमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।।9।।

अर्थ: हे त्रिपुरहंता! इस संसार को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं — कोई इसे शाश्वत मानता है, तो कोई इसे नश्वर। लोग जो भी तर्क करें, आपके भक्त सदा आपको ही परम सत्य मानते हैं और आपकी भक्ति में ही अपना परम आनंद पाते हैं। मैं भी उसी भावना से आपमें पूर्ण श्रद्धा रखता हूं। भले ही किसी को मेरी बात धृष्टता लगे, लेकिन मुझे इसकी तनिक भी चिंता नहीं है।

तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरिविरंचिर्हरिरधः।

परिच्छेत्तु यातावनलमनलस्कन्धवपुषः॥

ततोभक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्।

स्तयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।10।।

अर्थ: हे प्रभु! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच इस बात को लेकर विवाद हुआ कि उनमें से श्रेष्ठ कौन है, तब आपने उनकी परीक्षा लेने के लिए अग्निरूप में एक अनंत ज्योति-स्तंभ का रूप धारण किया। ब्रह्मा जी उसकी ऊंचाई मापने ऊपर की ओर गए और विष्णु जी नीचे की ओर, लेकिन वे दोनों उस स्तंभ का कोई आदि-अंत नहीं खोज पाए। अंत में दोनों ने अपनी हार स्वीकार की और श्रद्धा से आपकी महिमा का गुणगान किया। उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर आपने अपना परम दिव्य स्वरूप प्रकट किया। वास्तव में, जो भी आपकी आराधना निष्ठा और भाव से करता है, उसे आपके दर्शन अवश्य प्राप्त होते हैं—यह आपकी करुणा की पहचान है। (Shiv Mahimna Stotra)

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अयत्नादापाद्यत्रिभुवनमवैरव्यतिकरम्।

दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्॥

शिरः पद्मश्रेणोरचितचरणाम्भोरु हबलेः।

स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर वियस्फूर्जितमिदम् ॥11॥

अर्थ: हे त्रिपुरांतक! आपके परम भक्त रावण ने जब कमलों की जगह अपने एक-एक करके नौ मस्तक आपकी आराधना में अर्पित कर दिए, तो आपने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान प्रदान किया। जैसे ही वह अपना दसवां सिर चढ़ाने को हुआ, आप स्वयं प्रकट हुए। आपके उस वरदान से ही उसकी भुजाओं में अपार बल उत्पन्न हुआ, जिससे वह तीनों लोकों में अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सका। यह सब आपकी प्रति उसकी अटूट भक्ति और समर्पण का ही फल था। 


अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनम्।

बलाकैलासेऽपि त्वदधिवसतौविक्रमयतः॥

अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगु ष्ठशिरसि।

प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।।12।।

अर्थ: हे शिव! आपकी कृपा से रावण अद्भुत शक्ति का स्वामी बन गया, लेकिन उस शक्ति का उपयोग उसने अहंकारवश किया। उसने यह सोच लिया कि यदि कैलाश पर्वत को ही लंका ले आए तो बार-बार आपकी पूजा के लिए वहां आने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इस विचार से उसने अपनी बाहों से पूरे पर्वत को उठाने का प्रयास किया। माता पार्वती भयभीत हो गईं। तब आपने मात्र अपने पैर का अंगूठा दबाया और रावण की सारी शक्ति पलभर में नष्ट हो गई। वह नीचे पाताल तक जा गिरा और वहां भी उसे ठिकाना न मिला। वास्तव में, जब किसी के पास शक्ति या वैभव तो होता है लेकिन विवेक नहीं, तो उसका परिणाम विनाशकारी ही होता है। 


यदृद्धि सुत्राम्णो वरद! परमोच्चैरपि सती।

मधश्चक्र बाणः परिजनविधैयस्त्रिभुवनः॥

नतच्चित्रं तस्मिन्वरिवसिरित्वच्चरणयोः।

न कस्याप्युन्नत्यं भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥13॥

अर्थ: हे शम्भो! आपकी कृपा से ही बाणासुर जैसा दानव भी इन्द्र और अन्य देवताओं से बढ़कर वैभवशाली बना और तीनों लोकों पर शासन करने में सक्षम हुआ। हे प्रभु! जो भी व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति के साथ आपके चरणों में अपना मस्तक झुकाता है, उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित होती है।(Shiv Mahimna Stotra lyrics)


अकाण्ड: ब्रह्माण्ड क्षयचकितदेवासुरकृपा।

विधेयस्याऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संह तवतः ।।

स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।

विकारोऽपिश्लाघ्यो भुवनभयभगंव्यसनिनः ॥14॥

अर्थ: हे भगवन! जब समुद्र का मंथन हो रहा था तब उसमे अमूल्य रत्नो के साथ-साथ बहुत ही जहरीला जहर (विष) भी निकला, जिससे पूरी सृष्टि खत्म  हो सकती थी, तब आपने करुणावश उस विष को पी लिया। उस विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला हो गया और तभी से आप "नीलकंठ" कहलाए। लेकिन हे शिव! क्या यह नीला कंठ आपकी सुंदरता को कम करता है? बिल्कुल नहीं—बल्कि यह तो आपकी दिव्यता और त्याग की महिमा को और भी बढ़ा देता है। जो दूसरों के कष्ट खुद सहकर दूर करता है, उसका कोई भी दोष उसे पूजा योग्य ही बनाता है। 


असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।

निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।

स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।

स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। 15।।

अर्थ: हे प्रभु! कामदेव के बाणों से अब तक कोई भी नहीं बच पाया — चाहे वह देवता हो, दानव हो या मनुष्य। लेकिन जब उसने आपकी महाशक्ति को न समझते हुए आप पर अपने पुष्प-बाण चलाने का साहस किया, तब आपने उसे उसी क्षण भस्म कर दिया। यह घटना इस सत्य को स्पष्ट करती है कि महान आत्माओं का अपमान करना कभी भी शुभ नहीं होता — उसका परिणाम विनाशकारी ही होता है।


मही पादाघाताद्व्रजति सहसा संशयपदम्।

पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्॥

मुहुर्योदौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा।

जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ 16॥

अर्थ: हे नटराज! जब आप संसार के कल्याण के लिए तांडव करते हैं, तो पूरी सृष्टि थर्रा उठती है। आपके पगों की गति से धरती अपने अंत की आहट सुनती है, आकाश और ग्रह-नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। आपकी जटाओं की हलचल मात्र से स्वर्गलोक विचलित हो जाता है, और आपकी भुजाओं की ताकत से वैकुण्ठ तक में हलचल मच जाती है। हे महादेव! यह वास्तव में आश्चर्यजनक है कि आपका यह अपरंपार बल कभी-कभी सृष्टि के लिए भय का कारण बन जाता है, फिर भी उसका उद्देश्य केवल और केवल भलाई होता है। 


वियद्व्यापीतारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः।

प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते॥

जगद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।

त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः।।17।।

अर्थ: हे शिव! जब गंगा मंदाकिनी रूप में स्वर्ग से अवतरित होती है, तो आकाश में चमकते तारों की छाया से उसका प्रवाह अत्यंत मोहक प्रतीत होता है। लेकिन जब वह आपके शीश पर विराजमान होती है, तो वह विराट नदी भी एक छोटे से बिंदु के समान सिमट जाती है। फिर जब वह आपकी जटाओं से निकलकर पृथ्वी पर प्रवाहित होती है, तो विशाल द्वीपों और भूखंडों का निर्माण करती है। यह सब आपके दिव्य तेज और महाशक्ति की अद्वितीय महिमा को दर्शाता है। (Shiv Mahimna Stotra in hindi)


रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिनगेन्द्रो धनुरथा।

रथांगेचन्द्राकौं रथचरणपाणिः शर इति॥

दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।

विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।।18।।

अर्थ: हे शिव! जब आपने तारकासुर के तीन पुत्रों द्वारा रचे गए त्रिपुर नामक नगरों का संहार करने का निश्चय किया, तब आपने पृथ्वी को रथ बनाया, सूर्य और चंद्रमा को उसके पहिए, मेरु पर्वत को धनुष और स्वयं ब्रह्मा को सारथी तथा विष्णु को बाण बनाया। लेकिन प्रभु, आपके लिए ये सब करने की क्या आवश्यकता थी? आप तो स्वयं संहार के अधिपति हैं, आपके लिए समूची सृष्टि को नष्ट करना भी सहज है। दरअसल, यह सब आपकी एक दिव्य लीला थी — एक अद्भुत खेल, जो आपकी अनंत महिमा और सामर्थ्य को दर्शाता है, न कि किसी साधन पर निर्भरता को। 


हरिस्ते साहस्त्र कमलबलिमाधाय पदयो।

र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहर कमलम्।

गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा।।

त्रयाणां रक्षायं त्रिपुरहर जागति जगताम् ॥19॥

अर्थ: हे शिव! जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों और नामों से पूजा आरंभ की, तब उन्होंने एक कमल की कमी महसूस की। लेकिन उनकी भक्ति इतनी गहन थी कि उन्होंने बिना संकोच अपनी एक आँख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। विष्णु जी का यह अत्यंत समर्पण भाव ही सुदर्शन चक्र के रूप में प्रकट हुआ, जिसे वे सृष्टि की रक्षा के लिए wield करते हैं। हे नाथ! आप स्वयं भी सदा तीनों लोकों — स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल — की रक्षा में तत्पर रहते हैं। 


क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् ।

क्व कर्म प्रध्वस्तं फलतिपुरुषाराधनमृते ॥

अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवम् ।

श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥20॥

अर्थ: हे शिव! जब कोई यज्ञ संपन्न होता है, तो उसके कर्ता को उसका फल आप ही प्रदान करते हैं। आपके प्रति श्रद्धा और भक्ति के बिना किया गया कोई भी कर्म सार्थक नहीं हो सकता। इसी कारण वेदों में आपको ही फलदाता स्वीकार कर, सभी शुभ कार्य आपकी स्तुति और आशीर्वाद के साथ प्रारंभ किए जाते हैं। (Shiv Mahimna Stotra)


क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां।

सृवीणामात्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।।

क्रतुन षस्त्वत्तः क्रतुफल विधानव्यसनिनो।

ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः॥ 21॥

अर्थ: हे प्रभु! आपने स्वयं यज्ञों की रचना की और उनके फल भी निर्धारित किए, फिर भी यदि कोई यज्ञ शुद्ध भावनाओं और निष्कलंक कर्मों से प्रेरित न हो — विशेषकर यदि उसमें आपकी उपेक्षा की जाए — तो उसका परिणाम कल्याणकारी नहीं होता। यही कारण था कि जब दक्ष प्रजापति ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें ब्रह्मा, अनेक देवता और ऋषि-मुनि उपस्थित थे, लेकिन उसमें आपके लिए आदर का भाव नहीं था, तो आपने उस यज्ञ को नष्ट कर दिया। वास्तव में, भक्ति के बिना किया गया कोई भी यज्ञ यज्ञकर्ता के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।


प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्त्वां दुहितरम्।

गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।

धनुः पाणेर्यातं दिवमपि सपत्नाकृतममुम्।

त्रसन्तन्तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥22॥

अर्थ: हे शिव! जब ब्रह्मा जी काल के प्रभाव में आकर मृग का रूप धारण कर अपनी ही कन्या के मृगी रूप पर आसक्त हो गए, तब आपने धर्म की मर्यादा की रक्षा हेतु उन पर एक बाण चलाया। आज भी वह बाण आकाश में आर्द्रा नक्षत्र के रूप में विद्यमान है, जो मृगशिरा नक्षत्र (ब्रह्मा) के ठीक पीछे स्थित है — मानो उनके अनुचित आचरण का प्रतीक बनकर सृष्टि को धर्म का स्मरण कराता हो।


स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह वाय तृणवत्।

पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वापुरमथन पुष्पायुधमपि॥

यदिस्त्रैणं देवो यमनिरतदेहार्ध-घटनाद्।

अवैति त्वामद्धावत वरद मुग्धा युवतयः॥23॥

अर्थ: हे शिव! हे त्रिपुरविनाशक! जब कामदेव ने आपकी गहन तपस्या में विघ्न डालने का प्रयास किया और पार्वती जी के प्रति आपके मन में आकर्षण जगाने की चेष्टा की, तब आपने उसे एक तिनके के समान भस्म कर दिया। इसके बाद यदि पार्वती यह सोचें कि आप उनके रूप पर मोहित हैं क्योंकि वे आपके अर्धनारीश्वर स्वरूप का आधा हिस्सा हैं, तो यह केवल उनकी अपनी कल्पना होगी। वास्तव में, हर स्त्री स्वभावतः अपनी सौंदर्य पर मोहित रहती है — लेकिन आपकी चेतना तो उस सांसारिक आकर्षण से परे है। (Shiv Mahimna Stotra pdf)


श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः।

चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।

अमंगल्यं शीलं तव भवतु ना मैवमखिलम्।

तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। 24।।

अर्थ: हे भोलेनाथ! आप श्मशान में विचरण करते हैं, भूत-प्रेतों को अपना साथी मानते हैं, चिता की भस्म का श्रृंगार करते हैं और मुंडमाला धारण करते हैं — ये सभी बातें देखने में भयावह और अमंगल प्रतीत होती हैं। फिर भी, हे श्मशानवासिन! जो भी भक्त सच्चे मन से आपका स्मरण करता है, उनके जीवन में आप हमेशा मंगल ही करते हैं और उन्हें शुभ फल प्रदान करते हैं। 


मनः प्रत्यविचत्त सविधमवधायात्तमरुतः।

प्रहष्यद्रोमाणः प्रमदसलिल्लोत्संगितदृशः।।

यदालोक्याह लावं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये।

यधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥25॥

अर्थ: हे शिव! जैसे अमृत से भरे सरोवर में स्नान करने से सभी प्राणी जीवन की पीड़ा और क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही जब कोई योगी अपनी इंद्रियों को वश में कर, मन को एकाग्र करता है और विधिपूर्वक प्राणायाम के माध्यम से भीतर उतरता है — तब वह भीतर आपकी ही अनुभूति करता है। उस क्षण उसे ज्ञानदृष्टि से जो दर्शन होता है, वह परमानंद से भर देता है, क्योंकि वह आप — शिवस्वरूप — की झलक होती है। 

shiv mahimna stotra lyrics

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त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वंहुतवह।

स्त्वमापरत्वं व्योमत्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च ॥

परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता ब्रिभ्रतिगिरम्।

न विद्मस्तत्तत्वंवयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥26॥

अर्थ: हे शिव! आप ही तो वह शक्ति हैं जो सूर्य और चंद्रमा में चमकती है, पृथ्वी और आकाश में व्याप्त है, अग्नि, जल और वायु के रूप में जीवन देती है। आप ही आत्मा रूप में भी विराजमान हैं। हे देव! मुझे तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता जिसमें आप न हों – आप ही सब कुछ हैं। (Shiv Mahimna Stotra in hindi)


त्रयीं तिस्रो वृत्तिस्त्रि भुवनमथोत्रीनपिसुरां।

नकाराद्यं र्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः।।

तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।

समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥27॥

अर्थ: हे शिव! 'ॐ' ध्वनि तीन अक्षरों – अ, ऊ और म – से मिलकर बनी है, जो क्रमशः स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल लोकों को, ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे त्रिदेवों को, तथा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जैसी तीन अवस्थाओं को दर्शाते हैं। लेकिन जब यह 'ॐ' पूरी तरह से गूंजता है, तब वह आपकी उस तुरीय अवस्था का संकेत देता है, जो इन सभी से परे, शांत, शाश्वत और परम चेतना का स्वरूप है। 


भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महां स्तथा।

भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ॥

अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देवः श्रुतिरपि।

प्रियायास्मैधाम्नेप्रणिहितनमस्योऽस्मि भवते ॥28॥

अर्थ: हे शिव! हे नाथ! वेद और देवता आपके इन आठ दिव्य नामों से आपकी वंदना करते हैं – भव, सर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान। हे शंभू! मैं भी श्रद्धा और भक्ति के साथ इन पावन नामों का स्मरण कर आपकी स्तुति करता हूँ।


नमोनेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो।

नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः॥

नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो।

नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥29॥

अर्थ: हे शिव! हे नाथ! वेद और समस्त देवगण आपके इन आठ पवित्र नामों से आपकी महिमा का गुणगान करते हैं — भव, सर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान। हे करुणामय शंभू! मैं भी पूरे श्रद्धा और भक्ति भाव से इन दिव्य नामों का स्मरण करता हूँ और विनम्रतापूर्वक आपकी वंदना करता हूँ।


बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः ।

प्रबलतम से तत्संहारे हराय नमो नमः ॥

जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौमृडाय नमो नमः ।

प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥30॥

अर्थ:हे प्रभु! आप जब रजोगुण धारण कर इस सृष्टि की रचना करते हैं, तब मैं आपके ब्रह्मा स्वरूप को नमस्कार करता हूं। जब आप तमोगुण अपनाकर संहार करते हैं, तब मैं आपके रौद्र रूप को प्रणाम करता हूं। और जब आप सत्त्वगुण के साथ लोक कल्याण में लगे होते हैं, तब मैं आपके विष्णु स्वरूप को वंदन करता हूं। लेकिन इन तीनों गुणों से परे जो आपका शुद्ध, निर्गुण शिव स्वरूप है – मैं उसे भी नमन करता हूं।


कृशपरिणतिचेतः क्लेशवश्वं क्व चेदम् ।

क्व च तव गुणसीमोल्लङ् घिनीशश्ववृद्धिः।।

इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।

वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥31॥

अर्थ: हे वरदाता शिव! मेरा मन इस समय दुख, मोह और क्लेश से व्याकुल है। भ्रम और असमंजस ने मेरी सोच को जकड़ लिया है। ऐसे विचलित मन से मैं आपकी महान और दिव्य महिमा का गुणगान कैसे कर पाऊं – यह सोचकर मैं स्वयं भी असमंजस में हूं।फिर भी, आपके प्रति मेरे अंतर्मन में जो गहरी श्रद्धा और भक्ति है, उसे प्रकट किए बिना मैं नहीं रह सकता। इसलिए अपनी सीमित बुद्धि और शब्दों की सामर्थ्य के अनुसार रची गई यह प्रार्थना, मैं विनम्रतापूर्वक आपके चरणों में अर्पित करता हूँ — कृपया इसे स्वीकार करें। (Shiv Mahimna Stotra lyrics)


असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे ।

सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।

तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥32॥

अर्थ: हे शिव! यदि सागर को दवात बना लिया जाए, काले पर्वतों को स्याही बना दिया जाए, कल्पवृक्ष की शाखा को कलम बना लिया जाए और पूरी धरती को कागज़ के रूप में उपयोग किया जाए — फिर भी, अगर स्वयं ज्ञान की देवी सरस्वती दिन-रात आपके गुणों का वर्णन करती रहें, तो भी वे आपके अद्भुत और अनंत स्वरूप का सम्पूर्ण वर्णन नहीं कर सकतीं। आपकी महिमा शब्दों से परे है।


असुरसुरमुनीन्द्रं रचितस्येन्दुमौले।

ग्रंथित गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।

सकलगुणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो।।

रुचिरमलघुवृत्तेः स्तोत्रमेतच्चकार ॥33॥

अर्थ: हे प्रभु! आप देवताओं, दैत्यों और महान ऋषियों के भी वंदनीय हैं। आपके मस्तक पर चंद्र विराजमान है और आप समस्त गुणों से परे, परब्रह्म स्वरूप हैं। आपकी इस अद्वितीय महिमा से प्रेरित होकर मैं, गंधर्व पुष्पदंत, श्रद्धा और भक्ति के साथ आपकी वंदना करता हूँ। 


अहरहरनवद्य धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्।

पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्य:।।

स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।

प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥34॥

अर्थ: जो भक्त श्रद्धा और भक्ति के साथ इस शिवमहिम्न स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, उसे इस पृथ्वीलोक में धन, संतान, दीर्घायु और यश की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, शरीर त्यागने के बाद वह शिवलोक को प्राप्त कर शिव के समान परम शांति का अनुभव करता है। इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से उसकी समस्त सांसारिक और आध्यात्मिक इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।


महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।

अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥35॥

अर्थ: शिव से महान कोई देवता नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से उत्तम कोई स्तुति नहीं, भगवान शंकर के नाम से प्रभावशाली कोई मंत्र नहीं और गुरु से अधिक पूज्य कोई तत्व नहीं है — यही सनातन सत्य है। 


दीक्षादानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।

महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 36॥

अर्थ: शिवमहिम्न स्तोत्र (Shiv Mahimna Stotra) का श्रद्धा और भक्ति से पाठ करने वाला व्यक्ति वह पुण्य प्राप्त करता है, जो ना केवल दान, दीक्षा, तपस्या, तीर्थ यात्रा, शास्त्रों के अध्ययन या यज्ञ से मिलता है — बल्कि इन सबसे कहीं अधिक फलदायी होता है। शिव की महिमा का गुणगान ही हर साधना से श्रेष्ठ माना गया है। 


कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः।

शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः।।

स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।

स्तवनमिदमकार्षीवृदिव्यदिव्यं महिम्नः ॥37॥

अर्थ: सभी गंधर्वों में श्रेष्ठ पुष्पदंत, जो स्वयं चंद्रमाधारी देवों के देव महादेव के सेवक थे, एक बार भगवान शिव के क्रोध का शिकार होकर अपनी दिव्य शक्तियों से वंचित हो गए। तब उन्होंने शिवजी को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए इस अद्भुत और पवित्र "शिवमहिम्न स्तोत्र" (Shiv Mahimna Stotra) की रचना की। 


सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुम्।

पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेतः।।

ग्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः।

स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥38॥

अर्थ: जो भी श्रद्धा और भक्ति के साथ हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह निश्चित ही स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले, देवताओं और ऋषियों द्वारा पूजित तथा किन्नरों के प्रिय भगवान शिव की शरण में पहुंचेगा। पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अचूक है और अपने फल को अवश्य प्रदान करता है।


आसमाप्त मिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।

अनौपम्यं मनोहारि सर्व मीश्वर वर्णनम् ॥39॥

अर्थ: पुष्पदंत गंधर्व द्वारा रचित यह स्तोत्र, जो भगवान शिव की महिमा और गुणों से परिपूर्ण, अत्यंत सुंदर, अनुपम और पुण्य फल देने वाला है — यहां संपन्न होता है।


इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।

अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥40॥

अर्थ: हे प्रभु! मेरी यह स्तुति जो मैंने अपनी भावना और श्रद्धा के साथ वाणी के माध्यम से आपके चरणों में अर्पित की है, कृपया इसे स्वीकार करें और मुझ पर सदैव अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें।


तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।

यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥41॥

अर्थ: हे शिव! हे महादेव! मैं आपके अनंत स्वरूप को पूरी तरह समझ नहीं सकता, न ही आपकी महिमा की गहराई को जानता हूं। फिर भी, आप जैसे हैं, जिस रूप में भी हैं, मैं श्रद्धा से आपको नमन करता हूं।।(Shiv Mahimna Stotra)


एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।

सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ॥42॥

अर्थ: जो व्यक्ति इस स्तोत्र का नित्य एक बार, दो बार या तीन बार श्रद्धा पूर्वक पाठ करता है, वह सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है और अंततः उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है।।


श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन।

स्तोत्रेण किल्विष-हरेण हर-प्रियेण ।।

कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।

सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥43॥

अर्थ: जो भी व्यक्ति पुष्पदंत द्वारा रचित इस पावन स्तुति का पाठ करता है, उसका गान करता है या श्रद्धा से अपने पास रखता है, उस पर भगवान शिव निश्चित ही कृपा करते हैं, क्योंकि यह स्तुति उनके हृदय को अत्यंत प्रिय है और पापों का नाश करने वाली है।।

।। इति श्री शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ।।


निष्कर्ष

शिवमहिम्न स्तोत्र (Shiv Mahimna Stotra)भगवान शिव को अत्यंत प्रिय माना गया है। जो भी श्रद्धा और विधिपूर्वक इसका पाठ करता है, उसे इस संसार में धन, वैभव और कीर्ति की प्राप्ति होती है, और मृत्यु के पश्चात उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है। यह स्तोत्र अत्यंत फलदायक माना गया है। ऐसा कहा जाता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के महान संत श्री रामकृष्ण परमहंस इसका पाठ करते हुए समाधि में लीन हो गए थे। शिवमहिम्न स्तोत्र में कुल 43 श्लोक होते हैं, जो भगवान शिव की महिमा का सुंदर वर्णन करते हैं।

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