Ganpati Atharvashirsha: बुद्धि और ज्ञान के आद्य स्रोत, भगवान गणेश को परमात्मा का विघ्ननाशक रूप मानकर पूजा जाता है। श्री गणेश के भक्त विविध विधियों से उनकी आराधना करते हैं, जैसे श्लोक, स्तोत्र, और जाप। इनमें गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ अत्यंत शुभकारी और फलदायी माना जाता है।
प्रत्येक दिन प्रातः शुद्ध होकर इस पाठ का जप करने से भगवान गणेश की अनुकंपा अवश्य प्राप्त होती है। यहाँ, हम अर्थ सहित श्री गणपति अथर्वशीर्ष स्तोत्र को प्रस्तुत कर रहे हैं।
गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ सदैव आसन पर बैठकर करना चाहिए। इस महत्वपूर्ण क्रिया के दौरान, पूर्व, उत्तर या ईशान दिशा की ओर मुख करना अत्यावश्यक है।
शांति पाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायुः।।
अर्थ: हे देवगण, हम अपने कानों से कल्याणकारी वचनों का श्रवण करें। जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं, हे देव, हम अपनी आंखों से शुभ कार्यों का साक्षात्कार करें। निरोग इंद्रियों और स्वस्थ शरीर के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए, हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे लिए निर्धारित सौ वर्ष या उससे अधिक आयु की प्राप्ति करें। तात्पर्य यह है कि हमारे सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ और सक्रिय रहें, ताकि हम सौ वर्ष या उससे अधिक की दीर्घायु का अनुभव कर सकें।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शांतिः॥ शांतिः॥ शांतिः॥
अर्थ: महान कीर्तिमान और ऐश्वर्य के स्वामी इन्द्र, हमारे कल्याण की कामना करें। विश्व के ज्ञान का प्रतीक, सर्वज्ञ और सभी का पोषण करने वाले पूषा, अर्थात सूर्य, हमें आशीर्वाद दें। जिनकी चक्रीय गति को कोई बाधित नहीं कर सकता, गरुड़ देव, हमारा कल्याण करें। अरिष्टनेमि, जो प्रजापति हैं और सभी दुरितों को दूर करने में सक्षम हैं, वे भी हमारे हित में हों। वेद वाणी के अधिपति, सतत वर्धनशील बृहस्पति, हमारी रक्षा करें। ॐ, समस्त जगत में शांति की स्थापना हो।
ॐ नमस्ते गणपतये।।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ।।1।।
अर्थ: ॐकार के अधिपति, भगवान गणपति को मेरा प्रणाम। हे गणेश, तुम ही प्रत्यक्ष सत्य हो। तुम ही केवल कर्ता हो, धर्ता हो और हर्ता भी हो। निस्संदेह, तुम इन सभी रूपों में स्थित ब्रह्म हो। तुम साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।
ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।। 2 ।।
अर्थ: मैं सच कहता हूँ. मैं सच कहता हूँ।
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अव त्वं माम् । अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्।
अव दातारम्। अव धातारम्।
अवानूचानमव शिष्यम्।
अव पश्चात्तात्। अव पुरस्त्तात्।
अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात्।
अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्।
सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ॥3॥
अर्थ: हे पार्वती नंदन, मेरी, इस शिष्य की रक्षा करें। वक्ता आचार्य की सुरक्षा करें। श्रोताओं की रक्षा करें। दाता और धाता की भी रक्षा करें। व्याख्या करने वाले आचार्य की भी सुरक्षा करें। इस शिष्य की रक्षा करें। पश्चिम से, पूर्व से, उत्तर से और दक्षिण से रक्षा करें। ऊपर से, नीचे से भी मेरी सुरक्षा करें। हर दिशा से मेरी रक्षा करें। चारों ओर से मुझे सुरक्षित रखें।
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदा द्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥4॥
अर्थ: आप वाङ्मय और चिन्मय हैं। आप आनंदमय हैं। आप ब्रह्ममय हैं। आप सच्चिदानंद, अद्वितीय और अनंत हैं। आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं। आप दानमय और विज्ञानमय हैं।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः॥
त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥5॥
अर्थ: यह सृष्टि तुमसे जन्म लेती है। सम्पूर्ण जगत एक दिन तुममें समाहित होगा। इस समस्त ब्रह्मांड की अनुभूति तुममें हो रही है। तुम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। परा, पश्चंती, वैखरी और मध्यमा वाणी के ये सारे स्तर तुम ही हो।
त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः॥
त्वं देहत्रयातीतः ॥ त्वं कालत्रयातीतः॥
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः॥
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं॥
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं
इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्॥6॥
अर्थ: सत्व, रज और तम—इन तीनों गुणों से परे तुम विद्यमान हो। जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की इन अवस्थाओं से भी तुम अतीत हो। स्थूल, सूक्ष्म और वर्तमान, इन तीनों देहों का भी तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं। भूत, भविष्य और वर्तमान, ये सभी काल भी तुम्हारे परे हैं। तुम मूलाधार चक्र में सदैव स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान, ये तीन प्रकार की शक्तियाँ केवल तुम ही हो। तुम्हारा ध्यान करने वाले योगीजन निरंतर तुम्हें साधते हैं। तुम ब्रह्मा हो, विष्णु हो, रुद्र हो, इन्द्र हो, अग्नि हो, वायु हो, सूर्य हो, चंद्रमा हो—तुम स्वयं ब्रह्म हो। भू:, र्भूव:, स्व:—ये तीनों लोक और ॐकार के वाच्य में भी तुम ही ब्रह्म हो।
गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादि तदनंतरम्॥
अनुस्वारः परतरः ॥ अर्धेन्दुलसितम् ॥ तारेण ऋद्धम्॥
एतत्तव मनुस्वरूपम् ॥ गकारः पूर्वरूपम्॥
अकारो मध्यमरूपम् ॥ अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्॥
बिन्दुरुत्तररूपम् ॥ नादः संधानम्॥
संहितासंधिः ॥ सैषा गणेशविद्या॥
गणकऋषिः ॥ निचृद्गायत्रीच्छंदः॥
गणपतिर्देवता ॥ ॐ गं गणपतये नमः॥7॥
अर्थ: गण के आरंभिक स्वर ‘ग्’ को पहले उच्चारित करें। इसके बाद वर्णों के प्रमुख स्वर ‘अ’ का उच्चारण करें। इसके पश्चात अनुस्वार का उच्चारण होगा। इस प्रकार, अर्धचंद्र की शोभा से युक्त ‘गं’ का स्वरूप तब प्रकट होता है, जब इसे ॐकार से आवृत किया जाता है। यहाँ गकार इसका पूर्व रूप है, जबकि बिन्दु इसका उत्तर रूप। नाद संधान का प्रतीक है, और संहिता उसकी संविधि है। यही गणेश विद्या का सार है। इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं, और निचृंग्दाय छंद का आधार है। श्री मद्महागणपति देवता हैं। इस महामंत्र का उद्घाटन इस प्रकार है—ॐ गं गणपतये नमः।
एकदंताय विद्महे । वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥8॥
अर्थ: एक दंत की महिमा का हम बखान करते हैं। वक्रतुण्ड का ध्यान हमें शक्ति और स्फूर्ति देता है। वह दन्ती (गजानन) हमारे जीवन में प्रेरणा का संचार करें। यही है गणेश गायत्री का सार।
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।.
रदं च वरदं हस्तैर्ब्रिभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:॥9॥
अर्थ: एकदंत चतुर्भुज भगवान, जिनकी चारों भुजाओं में पाश, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्राएं सुशोभित हैं, जिनके ध्वज पर मूषक का चिह्न अंकित है। रक्तवर्ण के लंबोदर, सूप जैसे विशाल कानों वाले, रक्त वस्त्रों से सजे और रक्त चंदन के लेप से आलोकित, जिनकी भक्ति में रक्त पुष्पों का अर्पण किया गया है। भक्तों पर अनुकंपा की वर्षा करने वाले, जगत के कारण अच्युत, और सृष्टि के आदि में प्रकृति और पुरुष से परे, उन श्री गणेश जी का निरंतर ध्यान करने वाला योगी सभी योगियों में परमश्रेष्ठ होता है।
नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्री वरदमूर्तये नमो नमः॥10॥
अर्थ: व्रात, अर्थात देवताओं के समूह के नायक को साष्टांग प्रणाम। गणपति को आदरपूर्वक नमस्कार। प्रथम पति, अर्थात शिवजी के गणों के अधिनायक को भी प्रणाम। लंबोदर, एकदंत, शिवजी के प्रिय पुत्र और श्री वरदमूर्ति को बार-बार नमस्कार।
॥ फल श्रुति॥
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्वतः सुखमेधते । स सर्वविघ्नैर्नबाध्यते।
स पञ्चमहापापातप्रमुच्यते ॥11॥
अर्थ: यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद का उपनिषद) है। इसका पाठ करने वाला ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त करता है। सभी प्रकार के विघ्न उसके मार्ग में अवरोध नहीं डालते। वह सर्वत्र आनंद का अनुभव करता है। वह पांचों प्रकार के भयानक पातकों और उपपातकों से मुक्त हो जाता है।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति ॥12॥
अर्थ: सायंकाल का पाठ करने वाला दिन भर के पापों को नष्ट करता है। प्रात:काल का पाठ रात्रि के पापों का हरण करता है। जो व्यक्ति प्रातः और सायं दोनों समय इसका पाठ करता है, वह निष्पाप बन जाता है। वह हर दिशा में विघ्नों को समाप्त करता है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति करता है।
इदम् अथर्वशीर्षमऽशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते।
तं तमनेन साधयेत्॥13॥
अर्थ: यह अथर्वशीर्ष केवल शिष्य को ही सौंपना चाहिए; अन्यथा इसे देना उचित नहीं है। यदि कोई मोहवश इसे प्रदान करता है, तो वह पातकी हो जाता है। सहस्र बार इसका पाठ करने पर जो-जो कार्य और इच्छाएँ प्रकट की जाती हैं, उनकी सिद्धि इसी के माध्यम से मानव प्राप्त कर सकता है।
अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति।
चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान् भवति।
इत्यथर्वण वाक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्। न बिभेति कदाचनेति ॥14॥
अर्थ: इससे जो गणपति का स्नान कराता है, वह वाणी में दक्ष हो जाता है। जो चतुर्थी के दिन उपवास करके जप करता है, वह ज्ञान के सूर्य से आलोकित हो जाता है। यह अथर्व वाक्य है कि इस मंत्र के द्वारा तपस्वी बनने वाला व्यक्ति कभी भी भय से अछूता रहता है।
यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति।
स मेधावान् भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति।
स वाञ्छितफलमवाप्नोति।
यः साज्यसमिद्भिर्यजति।
स सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥15॥
अर्थ: जो दूर्वांकुर से भगवान गणपति की पूजा करता है, वह कुबेर के समान धन्य हो जाता है। जो लाजो (धानी-लाई) से यजन करता है, वह यश और बुद्धि का धनी बनता है। जो सहस्र लड्डुओं (मोदकों) से यजन करता है, वह अपने इच्छित फल को अवश्य प्राप्त करता है। और जो घृत के साथ समिधा से यजन करता है, वह सर्वसम्पन्न हो जाता है।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥ 16॥
अर्थ: आठ ब्राह्मणों को विधिपूर्वक भोजन कराना दानकर्ता को सूर्य के समान तेज प्रदान करता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में स्नान करके या प्रतिमा के निकट मंत्र जपने से मंत्र की सिद्धि प्राप्त होती है। इससे सभी महान बाधाएं समाप्त हो जाती हैं। जो इस विधि को जानता है, वह सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है।
॥ अथर्ववेदीय गणपति उपनिषद समाप्त ॥
॥ शान्ति मंत्र ॥
ॐ सहनाववतु । सहनौभुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
अर्थ: हे भगवान, कृपया गुरु और शिष्य की समान रूप से रक्षा करें। हमारा सामूहिक पालन-पोषण करें। हमें दोनों को एक साथ पराक्रमी बना दें। जो शास्त्र हमने पढ़ा है, वह तेजस्विता प्रदान करे। गुरु और शिष्य के बीच किसी प्रकार का द्वेष न हो।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः।
व्यशेम देवहितं यदायुः॥
अर्थ: हे देववृंद, कृपया हमें अपने कानों से कल्याणकारी वचन सुनने का सौभाग्य प्रदान करें। आप, जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं, हे देव, हमें अपनी आंखों से मंगलमय कार्यों का साक्षात्कार करने दें। निरोग इंद्रियों और स्वस्थ शरीर के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए, हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे कल्याणार्थ निर्धारित सौ वर्ष या उससे अधिक आयु को प्राप्त करें। हमारा तात्पर्य यह है कि हमारे सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ और सक्रिय रहें, ताकि हम सौ या उससे अधिक वर्षों तक दीर्घकालिक जीवन का अनुभव कर सकें।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
अर्थ: महान कीर्तिमान और ऐश्वर्य से युक्त इन्द्र, कृपया हमारा कल्याण करें। विश्व के ज्ञान के स्वरूप, सर्वज्ञ, सभी का पोषण करने वाले पूषा, अर्थात सूर्य, आपका आशीर्वाद हमें मिले। जिनकी चक्रीय गति को कोई भी नहीं रोक सकता, वे गरुड़ देव, हमें अपने संरक्षण में लें। अरिष्टनेमि, जो प्रजापति हैं, वे सभी बाधाओं को दूर करने वाले हैं, कृपया हमारा उद्धार करें। वेद वाणी के स्वामी, सतत वर्धनशील बृहस्पति, हमारे कल्याण का मार्गदर्शन करें।
ॐ शांतिः॥ शांतिः॥ शांतिः॥
अर्थ: ॐ सर्वत्र शांति स्थापित हो।
॥ इति श्री गणपति अथर्वशीर्ष स्तोत्रम् ॥
Ganpati Atharvashirsha (Pdf): गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने से अद्वितीय फल की प्राप्ति होती है। इस पवित्र पाठ को आप अपनी सामर्थ्य के अनुसार 108 या 1008 बार पढ़ने का संकल्प कर सकते हैं। जातक जिसे भी प्रयोजन के लिए गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना हो, उसे अपने संकल्प में उस उद्देश्य का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए।
अथर्ववेद के अनुसार, जो भक्त अपनी आंखें बंद करके, किसी भी समय अपने प्रभु की उपस्थिति की कल्पना करते हुए इस स्तोत्र का जाप करता है, वह हर प्रकार के विघ्नों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
इन्हे अवश्य करना चाहिए गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ
गणेश अथर्वशीर्ष (ganesh Atharvashirsha) का पाठ उन लोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है, जिनकी कुंडली में राहु, केतु और शनि का अशुभ प्रभाव विद्यमान है। ऐसे व्यक्तियों को प्रतिदिन गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना चाहिए। इस साधना के माध्यम से उनके दुखों का निवारण हो जाता है। यदि बच्चे या युवा पढ़ाई में ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे हैं, या उन्हें अध्ययन में रुचि नहीं आ रही है, तो नियमित रूप से इस पाठ का जाप करें। इससे उनकी एकाग्रता में वृद्धि होती है, और अध्ययन में मन लगने लगता है।
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