Vaibhav Laxmi Vrat Katha : वैभव लक्ष्मी व्रत को शुक्रवार के दिन विशेष रूप से रखा जाता है। इस व्रत में माता लक्ष्मी के अष्टलक्ष्मी स्वरूप की पूजा की जाती है और व्रत कथा का श्रवण किया जाता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए यह व्रत करता है, उसे कम से कम 11 या 21 शुक्रवार तक व्रत का पालन करना चाहिए। इसके बाद विधिपूर्वक उद्यापन कर व्रत का समापन करना होता है। आइए, इस व्रत की कथा (Vaibhav Laxmi Vrat Katha) और पूजा विधि को विस्तार से समझते हैं।
एक बड़े शहर में बहुत से लोग रहते थे, और सभी लोग अपने-अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थे। वहां किसी को किसी से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। भजन-कीर्तन, भक्ति, दया, और परोपकार जैसे संस्कार धीरे-धीरे कम होते जा रहे थे। शहर में बुराइयों ने अपनी जड़ें जमा ली थीं—शराब, जुआ, चोरी, व्यभिचार, और डकैती जैसी गतिविधियां आम हो गई थीं। फिर भी, इन सबके बीच कुछ अच्छे और सच्चे लोग भी थे। ऐसे ही नेक इंसानों में शीला और उसके पति की गृहस्थी का नाम लिया जाता था।
शीला धार्मिक स्वभाव की, संतोषी और सादगी भरी जीवनशैली अपनाने वाली महिला थी। उनके पति भी विवेकशील और सुशील स्वभाव के थे। दोनों कभी किसी की बुराई नहीं करते थे और अपने दिन प्रभु भजन और धर्म-कर्म में बिताते थे। उनकी गृहस्थी शहर में आदर्श मानी जाती थी, और लोग उनकी सराहना करते थे।
लेकिन समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। शीला के पति ने बुरी संगत में पड़कर गलत दोस्तों का साथ अपना लिया। वह जल्दी करोड़पति बनने के सपने देखने लगा और इसी लालच में उसने गलत राह पकड़ ली। धीरे-धीरे वह अपने अच्छे संस्कारों को भूल गया और शराब जैसी बुरी आदतों का शिकार हो गया। परिणामस्वरूप, उसने अपनी संपत्ति और प्रतिष्ठा, दोनों को खो दिया और उसकी हालत एक भटकते हुए भिखारी जैसी हो गई। (Vaibhav Laxmi Vrat Katha)
अपने पति के बदलते व्यवहार से शीला बेहद आहत थी, लेकिन उसने भगवान पर भरोसा रखते हुए हर दुख को सहन करने का संकल्प लिया। शीला ने अपने जीवन को प्रभु भक्ति में डुबो दिया और ज्यादातर समय पूजा-पाठ और ध्यान में बिताने लगी। (Vaibhav Laxmi Vrat Katha)
एक दिन दोपहर के समय, अचानक उसके दरवाजे पर दस्तक हुई। जब शीला ने दरवाजा खोला, तो उसने देखा कि एक बुजुर्ग महिला बाहर खड़ी थीं। उनका चेहरा अद्भुत तेज से दमक रहा था, और उनकी आंखों से मानो दया और करुणा बरस रही थी। उनका अलौकिक व्यक्तित्व ऐसा था कि शीला के मन को तुरंत शांति मिल गई। उनका चेहरा ऐसा था मानो प्रेम और दया की मूर्ति साक्षात सामने खड़ी हो।(Vaibhav Laxmi Vrat Katha)
शीला ने झिझकते हुए उन्हें घर के अंदर आने का आग्रह किया। घर में उन्हें बिठाने के लिए शीला के पास कुछ खास नहीं था, इसलिए उसने फटी हुई चादर को बिछाकर आदरपूर्वक उन्हें बैठने को कहा।
उस महिला ने मुस्कुराते हुए कहा, "शीला, मुझे पहचाना नहीं? मैं हर शुक्रवार लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय आती हूं।" यह सुनकर भी शीला उन्हें पूरी तरह नहीं पहचान पाई। महिला ने आगे कहा, "तुम्हें कई दिनों से मंदिर में नहीं देखा, तो मैं तुम्हें देखने चली आई।" उनकी यह बात सुनकर शीला के मन में असीम आनंद और सम्मान का भाव उमड़ पड़ा।
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माताजी के स्नेह और करुणा भरे शब्दों ने शीला का दिल छू लिया। वह भावुक होकर रो पड़ी। मांजी ने प्यार से कहा, बेटी! सुख और दुख जीवन में धूप-छांव की तरह आते हैं। धैर्य रखो। मुझे अपनी सारी परेशानी बताओ। शीला को उनकी बातों से एक नई ऊर्जा मिली। उसने अपने दुखों और संघर्षों की पूरी कहानी माताजी को सुनाई।
मांजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "कर्मों की गति अद्भुत है। हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। लेकिन अब तुम्हारे कष्टों का अंत होने वाला है। मां लक्ष्मी, जो प्रेम और दया की मूर्ति हैं, हमेशा अपने भक्तों की रक्षा करती हैं। तुम वैभवलक्ष्मी व्रत (Vaibhav Laxmi Vrat Katha) रखो। यह व्रत तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करेगा और जीवन में सुख-शांति लौट आएगी।
शीला के पूछने पर माताजी ने उसे वैभवलक्ष्मी व्रत (Vaibhav Laxmi vrat katha) की पूरी विधि विस्तार से बताई। उन्होंने समझाते हुए कहा, *यह व्रत बहुत ही सरल है और इसे वैभवलक्ष्मी व्रत या वरदलक्ष्मी व्रत के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को करने से धन, यश और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।*
माताजी की बातें सुनकर शीला के मन में नई उम्मीद जागी। उसने प्रणाम कर व्रत रखने का संकल्प लिया। जब उसने आंखें खोलीं, तो माताजी वहां नहीं थीं। शीला समझ गई कि वे कोई और नहीं, स्वयं मां लक्ष्मी थीं।
अगले दिन शुक्रवार था। शीला ने स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण किए और पूरी श्रद्धा से व्रत किया। पूजा के बाद उसने प्रसाद तैयार कर सबसे पहले अपने पति को खिलाया। जैसे ही उसके पति ने प्रसाद खाया, उनका व्यवहार बदल गया। उस दिन न तो उन्होंने शीला को मारा, न ही परेशान किया।
शीला ने 21 शुक्रवार तक वैभवलक्ष्मी व्रत पूरी निष्ठा और भक्ति से किया। 21वें शुक्रवार को उसने उद्यापन विधि के अनुसार सात महिलाओं को व्रत कथा की पुस्तक भेंट की और खीर का प्रसाद खिलाया। उसने मां लक्ष्मी की छवि के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना की, "हे मां धनलक्ष्मी, मैंने यह व्रत आपकी कृपा पाने के लिए किया। मेरी सभी विपत्तियां दूर करें, और सभी को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद दें।"
व्रत का प्रभाव शीघ्र दिखने लगा। शीला का पति अपनी गलत आदतें छोड़कर मेहनत से काम करने लगा। उसने शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ाए और परिवार में सुख-शांति लौट आई। शीला का घर धन-धान्य से भर गया। व्रत के इस चमत्कार को देखकर पड़ोस की अन्य महिलाओं ने भी वैभवलक्ष्मी व्रत रखना शुरू कर दिया।
वैभवलक्ष्मी व्रत को सात, ग्यारह, या इक्कीस शुक्रवार तक श्रद्धा और भक्ति के साथ करना चाहिए। आखिरी शुक्रवार को शास्त्रीय विधि से व्रत का उद्यापन करें।
इस व्रत की महिमा अपार है। इसे विधिपूर्वक करने से मां लक्ष्मी भक्तों पर कृपा करती हैं, उनकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं, और जीवन में खुशहाली लौट आती है।
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